क्या भारतीय मन आज विलुप्त हो रहा है 

क्या भारतीय मन आज विलुप्त हो रहा है 



तीन से पांच हजार साल की भारतीय संस्कृति ही वस्तुतः भारत का मन या इंडियन माइंड है। प्रासंगिक सवाल यह है कि आज वह भारतीय मन कहां है। लगभग पांच हजार साल पहले की जनजातीय चेतना ही क्या आज का गौरवशाली राष्ट्रवाद है ? लेकिन वह जनजातीय चेतना क्या आज भी क्रियाशील है ? बल्कि कटु सच्चाई तो यह है कि आदिम समाज में रची गई प्राचीन वैदिक ऋषियों की संस्कृति को आज विदाई दी जा चुकी है। इस देश में कभी जो संस्कृति रहती थी, आज वह कहां, किस रूप में है, या कि विलुप्त हो गई है, और उस जैसी ही एक संस्कृति की यह देश प्रतीक्षा कर रहा है, इस तरह के अनेक ज्वलंत प्रश्नों पर मंथन करने का उपयुक्त समय यही है।
इसमें तो खैर दो राय नहीं कि वैदिक भारत अभेद समाज का उन्मेष था। या यह कहें कि प्राचीन भारतीय समाज अभेद दृष्टि का वैदिक स्पर्श लेकर कर्मशील था। इसका सबसे बड़ा प्रमाण तो यही है कि “उस दौर” में अर्थहीन प्रश्न नहीं उठते थे। इस तरह के प्रश्न कतई नहीं उठते थे कि इस देश में बहुसंख्य कौन हैं ? क्योंकि यह न्यूनतम बोध का मामला है कि भारत में बहुसंख्य भारतीय हैं, तभी तो इस देश का नाम भारत है। इस अर्थ में चीन में भारत से गया व्यक्ति भारतीय ही होगा, और अपने को भारतीय ही कहेगा, रूसी नहीं। चीन में बहुसंख्य चीनी हैं और रूस में रूसी, इस तरह का मुद्दा किसी दूसरे मुद्दे या प्रश्न को सिर उठाने नहीं देता, क्योंकि यह बेहद न्यूनतम महत्व का विषय है।
हां, वैदिक भारत प्रश्न अवश्य करता था। यही तो उसकी संस्कृति थी। एक भारतीय नागरिक को सम्यक प्रश्न करना सिखाया जाता था कि वह पूछे कि सत्ता क्या है। क्या यह दूसरों पर शासन करने के लिए है ? क्या एक सत्ता पर निर्भरशील समाज की परिकल्पना की जा सकती है ? क्या ऐसा समाज व्यावहारिक रूप से सभ्य, शिक्षित, आत्मनिर्भर और द्वंद्वहीन हो सकता है, और क्या वह सत्ता अपने अंतस में भी ढूंढी जा सकती है ? दृष्टिवान विद्वानों ने हर युग में इस सत्ता को ढूंढा और इसे ही अस्तित्व कहा। मनुष्य का अस्तित्व, सृष्टि का अस्तित्व, स्वच्छ और समय में होकर भी समय से परे। ऐसे दृष्टिसंपन्न विद्वान ही ऋषि कहलाए और उन्हें अपनी नागरिकता पूरे विश्व में फैली दिखी, व्यापक, विस्तीर्ण और बृहत्तर रूप में। उस व्यापक सोच में निरर्थक प्रश्नों की कहीं कोई जगह ही नहीं थी।
ऐसे बृहत्तर मानस का भारतीय सत्ता को लेकर प्रश्न उठाता रहा, सत्ता पर प्रश्न करता रहा और भारत देश को इन प्रश्नों से उत्तरोत्तर दृष्टियां मिलती चली गईं। इन्हें ही हमने दर्शन कहा। दर्शन कोई गूढ़ और कठिन विषय नहीं है, बल्कि वह हर युग में समसामयिक प्रश्नों और मुद्दों पर आधारित रहा है। इस तरह से जो है, और जो दिखता है, उसकी अन्वीक्षा होती रही और जो होना चाहिए, उसकी प्रतिष्ठा होती चली गईI
भाषा, मूल्य, आचार, ज्ञान और मौन की ऐसी संपदा भारत के पास हो गई कि देश यूनानी संस्कृति के समय में भी अप्रभावित रहा और अपनी लोक और लोकोत्तर ज्ञान परंपरा के बूते अपने ही आविष्कार और अन्वेषण की लकीर को निरंतर लंबा करता गया। गणित, व्याकरण और अर्थशास्त्र की हमारी मौलिकता उन्हीं बृहत्तर दृष्टियों के नए विषय प्रवर्तन बने। यह वस्तुतः तीन हजार साल पुरानी हमारी सभ्यता का गौरव है, जब अपनी अर्थनीति में कौटिल्य राजाओं को सुझाव भी प्रकृति को देखकर देता था।
वह कहता था, जैसे गर्मी में सूरज के जरिये प्रकृति नदी से काफी पानी सोख लेती है और फिर प्रकृति उसी नदी को बारिश में उससे अधिक पानी लौटा देती है, एक राजा को अपनी प्रजा से इसी तरह कर लेना चाहिए, या जैसे, भंवरा सारे फूलों का रस लेता है और किसी भी फूल का स्वरूप, रंग, रूप, बनावट और चारूत्व को नहीं बिगड़ता, वैसा का वैसा बनाए रखता है, राजा को प्रजा से ऐसे ही कर लेना चाहिए I प्रकृति से उदाहरण लेकर उसे राजनीति और अर्थव्यवस्था में प्रासंगिक और मूल्यवान वही बना सकता है, जिसे भारतीय जीवन और संस्कृति की बहुत गहरी समझ हो। आज के दौर में, दुर्भाग्य से, ऐसा होते हुए हम नहीं देखते।
इसी कारण यह सवाल गहराता है कि क्या हम अपने गहरे, समृद्ध और बृहत्तर भारतीय मन को आज खो चुके हैं। क्या उस संस्कृति को, जो इस भारत देश में रहती थी, फिर से ढूंढा जाना और फिर उसका पुनर्नवा व्यर्थ या नष्टकर्म होगा ? क्या मूर्ख को दिया गया उत्तर हमेशा मौन होता है या मौन का भी कोई राजनीतिक संदर्भ अपने समानांतर समकालीन समाज में पाया जा सकता है, जो लोकोत्तर और कालातीत होकर भी प्रासंगिक समय में प्रत्यक्ष प्रतिरोध का सामर्थ्य हमें सौंप सके, ताकि हम अपनी पूर्ववर्ती वैदिक संस्कृति से आगे और सक्रिय जनजातीय चेतना को अपदस्थ करने की दिशा में समग्र क्रांति का रचनात्मक उदाहरण फिर से रख सकें। मौजूदा परिदृश्य में यह थोड़ा कठिन तो लगता है, लेकिन असंभव नहीं है। लेकिन इसके लिए हमें अपने उस बृहत्तर भारतीय मन को जगाना पड़ेगा। क्या हम इसके लिए तैयार हैं ?